एक साहित्य ऐसा भी: आज़ादी और विचार

डॉ अलका सिंह

साहित्य और इतिहास का पारस्परिक सम्बन्ध एक व्यापक दृष्टिकोण को जन्म देता है। आम तौर पर इस प्रकार के लेखन में विकास और परिवर्तन की व्याख्या के साथ साथ परम्पराओं, संस्कृतियों और विचारधाराओं की नवीनता के कई पक्षों का विश्लेषण होता है। एक तरफ जहां नई और पुरानी पृष्ठिभूमि पर सैद्धांतिक और सृजनात्मक संरचनायें होती हैं वहीं दूसरी तरफ सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और शैक्षणिक संबंधों की स्थापनाओं का विस्तृत स्वरुप भी होता है। शैक्षणिक व्यवस्थाओं में स्कूली और विश्वविद्यालयी समाज का अस्तित्व मानव संरचनाओं की विचारधाराओं और व्यावहारिक प्रक्रिया का सृजनात्मक रंग लिए विशिष्ट स्वरूपों को जन्म देता है, और इतिहास का एक अभिन्न अंग होता है।

साहित्य के इतिहास लेखन के द्वंदात्मक सम्बन्धो का विश्लेषण सुप्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय की पुस्तक “साहित्य और इतिहास दृष्टि” में साहित्य की दृष्टियों को समझने का अवसर प्रदान करती है। इस तरह के लेखन में साहित्य बोध, विश्लेषण और मूल्यांकन की ऐतिहासिक दृष्टि के साथ प्रचलित धारणाओं और नवीन विचारधाराओं की प्रासंगिकता भी समझ में आती है। वैसे तो भारत में विश्वविद्यालयों का इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन प्रचलित रूप में हम उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में स्थापित आधुनिक विश्वविद्यालओं को चर्चा में लाते हैं।

इस दौर में भारत में स्थापित किये गए कलकत्ता, मद्रास और बम्बई के विश्वविद्यालयों का इतिहास 1857 की क्रांति के बाद बड़े प्रशासनिक फैसलों में शामिल है। इनके अतिरिक्त देश के कई विश्वविद्यालयों का इतिहास 100 वर्ष पुराना है। ऐसी ही पृष्ठिभूमि और परिप्रेक्ष्य में साहित्य सृजन में सचिन त्रिपाठी की पुस्तक “लखनऊ विश्वविद्यालय: शून्य से सौ तक” एक विशेष साहित्य का जन्म है, जिसमे विशिष्ट भाषा शैली और प्रस्तुतीकरण द्वारा लखनऊ विश्वविद्यालय के सौ वर्ष के इतिहास को साहित्यिक दृष्टि से दर्शाया गया है।

त्रिपाठी जी का लेखन एक छात्र की दृष्टि और समझ को परिलक्षित करते हुए एक लेखक के तौर पर विश्वविद्यालय से जुड़े सम्बन्धित दस्तावेज़ों के प्रति संवेदनाओं पर मंथन और खोज का भी विश्लेषण है। वे लिखते हैं, “दैनिक काम के साथ ही रोज़ाना इसको लेकर लोगों के साथ चर्चा, मंथन तथा खोज का सिलसिला लगातार चलता रहा। इस दौरान जो कड़ियां हाथ लगती जातीं , उन्हें सहेजने का काम भी होता रहा।” इस पुस्तक में अवध के क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था और उससे जुड़े इतिहास का भी रोचक वर्णन है। पंद्रह अध्ययायों में बनी यह पुस्तक न केवल सौ साल पुराने लखनऊ विश्वविद्यालय का इतिहास समेटे है, अपितु विश्वविद्यालय से जुड़े स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास, धार्मिक सौहार्द, राजनीतिक व्यवस्था, अद्वियीय भवनों और संवाद के द्वारा शैक्षणिक इतिहास का अध्ययन है।

यह एक उत्सव है मानवीय मूल्यों तथा तत्सम्बन्धी सफलता और असफलता के आकलन का। साहित्य और इतिहास के इस रोचक मिश्रण में जहां एक ओर कुलपतियों के कालक्रम में विस्तृत शैक्षणिक संवाद है, राजनीतिक माहौल का चित्रण है, तो वहीं मानवतावादी स्वाभिमान और राष्ट्र नेतृत्व के द्वन्द भी शामिल हैं।

इतिहास के साथ ही साथ “लखनऊ विश्वविद्यालय: शून्य से सौ तक” अपनी स्पष्ट भाषा शैली के माध्यम से विश्वविद्यालय पर केंद्रित विशेष साहित्य का निर्माण हैं। ऐसा साहित्य समकालीन सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक सन्दर्भों को समेटे अकादमिक अध्ययन तो प्रस्तुत करता ही है, सृजनात्मक और भाषायी परिप्रेक्ष्य में अध्येताओं को एक नयी सोच और लेखनी की प्रतिभा की समझ भी पैदा करता हैं। यह पुस्तक याद दिलाती है -नील लाब्यूट की “द शेप ऑफ़ थिंग्स” , मैरी मककार्थी की “द ग्रोव्ज ऑफ अकाडेमी ” और टॉम पैरोटा की “जो कॉलेज” , जिम स्टीवर्ट की ” अ स्टेरकेस इन सरे ” तथा पॉल वेस्ट की “ऑक्सफ़ोर्ड डेज ” जैसे साहित्यों की जो विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक समरसता , पहचान और विद्या प्राप्ति के आमेलन की झलक हैं। वैश्वीकरण और अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक संवाद के चलते लेखक ने भाषा के नये प्रयोगों और संस्कृति को परोसा है।

इतिहास और साहित्य के सम्बद्ध को स्थापित करता यह रोचक संस्मरण साहित्य की वास्तविकता को नये सिरे से परिभाषित करता है। लखनऊ विश्वविद्यालय के कैनिंग कॉलेज के स्वरुप से गुम्बद वाले अन्य भवनों, विभागों ,परिसरों के वास्तु को समझने की प्रेरणा देते हुये समाज और राष्ट्र निर्माण में छात्रों, शिक्षकों और नेतृत्व की बागडोर लिए कुलपतियों , इससे जुड़े विद्वानों और मनीषियों के समावेशी विचारों की परिपाटी पर कभी भाव विभोर करते तो कभी गमगीन करते अतीत के साथ ही सुनहरे और नवीन वर्तमान की समस्याओं और चुनौतियों की पृष्ठभूमि तय करता है। अपने अध्ययन और शोध द्वारा लखनऊ विश्वविद्यालय पर सिरजे इस अमूल्य साहित्य में रचा इतिहास विचारों का उत्सव है और वास्तव में एक ऐसे साहित्य का निर्माण है जो छात्र जीवन , उसके उपरांत चुने गए व्यवसाय उसकी पहचान और राष्ट्रहित में शिक्षा के योगदान की अमूल्य धरोहर साबित होते है।

(डॉ अलका सिंह, डॉ राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं। )

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